जिस पत्थर को अक्सर मैं घूरता रहा, दरअसल वो खुदा था.....
सभी उनके करीबी थे, मैं ही उनसे जुदा था...
फिर इक दफा उन्होंने दो लोगो को मेरे करीब भेजा,
जिन्होंने मुझे उस खुदा के करीब भेजा...
खुदा का रंग मुझे, पहले ही दिन नज़र आया..
मुड कर जिधर भी देखा, उसी का था साया..
ढूंढा जिधर उस खुदा को, हर जहग उसे पाया...
ना एक सूरत थी उसकी, नाही एक थी काया..
धुप भी उसकी की थी, वही देता रहा छाया..
ना कोई समझ सका अब तक, कैसी है उसकी माया...
इतना समझ सका हूँ की , वो ही मुझे जग में लाया...
>>>>अमरदीप<<<<