Wednesday, September 23, 2015

मैं वो परिंदा जो अब उड़ना चाहता हूँ...


मैं वो परिंदा जो अब उड़ना चाहता हूँ,
वापिस ना अपने घर कभी मुड़ना चाहता हूँ।
हार चूका, थक चूका अब टूट गया हूँ,
है नहीं अब कोई अपना, सबसे छूट गया हूँ।
किया जिनके लिए उन्होंने मुझे नाकारा समझा,
जीने चला जिसके संग, उसने ही आवारा समझा।
नहीं है चाह अब जिंदगी में कुछ करने की,
किसे है परवाह इस दुनिया अब जीने मरने की।

मैं वो परिंदा जो अब उड़ना चाहता हूँ,
वापिस ना अपने घर मुड़ना चाहता हूँ।।

पल पल हर पल अब कटने लगा हूँ,
जिंदगी की सच्चाई से भटकने लगा हूँ। 
उम्मीद की जिस जिस से सिर्फ प्यार की,
उन सब को हर वक़्त अब मैं खटकने लगा हूँ।
पहले दोस्तों की फिर अपनों की फिर उनकी नज़रों से गिरा,
आज मुकाम वो आया की खुद की नज़रों से गिरने लगा हूँ। 
मैं वो परिंदा जो अब उड़ना चाहता हूँ,
वापिस ना अपने घर मुड़ना चाहता हूँ।।

{अमरदीप सिंह }