Friday, July 20, 2012

अंत "अमरदीप" सुलगता गया....

जाल बुनना तुने शुरू किया, और फंसता मै चला गया..
गुनाह हर बार तुने किया, और गुनाहगार मै बनता गया..
कांटे बोये रास्तो पर तुने, आँख बंद कर मै चलता गया..
कांच तुने तोड़े जाकर सबके , टुकडो में मै बंटता गया..
चिराग बुझाये तुने अक्सर, अंधेरो में मै भटकता गया..
खेला तुने कई दिलों से अब तक, दर्द से मै बिलखता गया..
आखिर घर किसी और का जला, अंत "अमरदीप" सुलगता गया.. 

>>>>अमरदीप<<<<

No comments:

Post a Comment